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उपदेश

विषय १ : पाप

[1-1] उद्धार पाने के लिए सबसे पहेले हमें अपने पापो को पहेचानना चाहिए (मरकुस ७:८-९ ) (मरकुस ७:२०-२३)

उद्धार पाने के लिए सबसे पहेले हमें अपने पापो को पहेचानना चाहिए
(मरकुस ७:८-९)
“क्योंकि तुम परमेश्‍वर की आज्ञा को टालकर मनुष्यों की रीतियों को मानते हो। उसने उनसे कहा, “तुम अपनी परम्पराओं को मानने के लिये परमेश्‍वर की आज्ञा कैसी अच्छी तरह टाल देते हो!”
 
(मरकुस ७:२०-२३)
“फिर उसने कहा, “जो मनुष्य में से निकलता है, वही मनुष्य को अशुद्ध करता है। क्योंकि भीतर से, अर्थात् मनुष्य के मन से, बुरे बुरे विचार, व्यभिचार, चोरी, हत्या, परस्त्रीगमन, लोभ, दुष्‍टता, छल, लुचपन, कुदृष्‍टि, निन्दा, अभिमान, और मूर्खता निकलती हैं। ये सब बुरी बातें भीतर ही से निकलती हैं और मनुष्य को अशुद्ध करती हैं।“ 

सबसे पहले, मैं यह दर्शाना चाहता हूँ की पाप क्या है। कुछ पाप ऐसे है जो परमेश्वर ने दर्शाएँ है और कुछ पाप ऐसे है जो मनुष्यने दर्शाएँ है। ग्रीक भाषा में पाप शब्द का अर्थ है, ‘निशान से चूकना’। दुसरे शब्दों में कहे तो, कुछ गलत करना। परमेश्वर की व्यवस्था का उल्लंघन करना पाप है। आइए देखते है की मनुष्य की नज़र में पाप क्या है।
 
पाप क्या है?
वह परमेश्वर की व्यवस्था का उल्लंघन करना है।
 
हम अपने मन के अनुसार पाप को पहचानते है। जब की, मनुष्य का मापदंड उसकी सामजिक पृष्ठभूमि, मानसिक स्तर, परिस्थिति और मन के मुताबिक़ बदलता रहेता है। 
इसतरह, अलग अलग व्यक्ति के अनुसार पाप की परिभाषा बदलती रहती है। एक जैसा ही कार्य हर एक व्यक्ति के खुद के मापदंड के मुताबिक़ पाप हो भी सकता है ओर नहीं भी हो सकता। इसलिए परमेश्वर ने हमें पाप के मापदंड के लिए व्यवस्था की ६१३ धाराएं दी है।
निचे दी गई आकृति मनुष्य के पाप को दर्शाती है।
 
परमेश्वर की व्यवस्था
मनुष्य का विवेक, 
नैतिकता और सामाजिक आचार
राष्ट्रीय नियम, नागरिक नियम
 
हमें सामाजिक आचार के आधार पर हमारे विवेक से पाप का मापदंड तय नहीं करना चाहिए। 
परमेश्वर की पाप की परिभाषा के साथ मनुष्य के विवेक के आधार पर की गई पाप की परिभाषा मेल नहीं खाती। इसलिए, हमें अपने मन की नहीं सुननी चाहिए, लेकिन परमेश्वर की आज्ञाओ के आधार पर पाप का मापदंड तय करना चाहिए। 
पाप क्या है उस के बारे में हम सब की अपनी अपनी राय है। कुछ लोग उसे अपनी कमजोरी कहते है जब की दुसरे उसे विकृत व्यवहार मानते है। 
उदाहरण के तौर पर, कोरिया में, लोग अपने मातापिता की कबर को घास से ढँक देते है और जब तक वह मरते नहीं तब तक कबरो की देखभाल करते है। लेकिन पपुआ न्यू जिनिआ की एक आदिवासी प्रजाति उनके मृत मातापिता को सन्मान देने के लिए उनके मृत शरीर को परिवार के लोगो के साथ बाँट कर खाते है। (मुझे नहीं पता है की वो मृत शरीर को खाने से पहेले उनको पकाते है या नहीं) मैं ऐसा मनाता हूं की मृत शरीर को कीड़े खा न जाए इसलिए वो ऐसा करते है। यह दर्शाता है की पाप के विषय में मनुष्य के विचार बहुत ही अलग अलग है। 
एक समाज में जिस कार्य को अच्छा माना जाता है वही कार्य को दुसरे समाज में गलत माना जा सकता है। जब की, बाइबल हमें बताती है के परमेश्वर की आज्ञा का उल्लंघन पाप है। “क्योंकि तुम परमेश्‍वर की आज्ञा को टालकर मनुष्यों की रीतियों को मानते हो। उसने उनसे कहा, “तुम अपनी परम्पराओं को मानने के लिये परमेश्‍वर की आज्ञा कैसी अच्छी तरह टाल देते हो!” (मरकुस ७:८-९)। परमेश्वर हमारे शारीरिक रूप को नहीं देखता क्योंकि वह केवल हमारे हृदय की गहेराई में देखता है।
 

मनुष्य का अपना मापदंड परमेश्वर के सन्मुख में पाप है 
 
सबसे गंभीर पाप कौनसा है?
परमेश्वर के वचनों का उल्लंघन करना सबसे गंभीर पाप है।
 
परमेश्वर की मरजी के मुताबिक़ जीवन न जीना पाप है। उनके वचनों में विश्वास न करना वह भी वैसा ही है। परमेश्वर ने कहा की, फरीसियों की नाई जीवन जीना पाप है, जिन्होंने परमेश्वर की आज्ञा का उल्लंघन किया और उनकी परंपरागत शिक्षा को ज्यादा महत्त्व दीया। यीशु ने फरीसियों को ढोंगी कहा।
“आप कौन से परमेश्वर में विश्वास करते है? क्या तुम वास्तव में मेरे प्रति श्रध्धा और उत्साह रखते हो? तुम मेरे नाम का ढिंढोरा पिटते हो लेकिन क्या वास्तव में तुम मुझे सन्मान देते हो?” इंसान केवल बाहरी रूप को देखता है और उसके वचनों का उल्लंघन करता है। क्या आप यह जानते है? 
हमारी कमजोरी से पैदा हुए नियमों की अवज्ञा करने की प्रवृत्ति दुष्टता का कार्य है। हमारी ख़ामियो के कारण हम जो कुछ भी गलत करते है और भूल करते है वह मौलिक पाप नहीं है, लेकिन हमारी गलतियाँ है। परमेश्वर पापो और गलतियों को अलग मानता है। जो आज्ञा का उल्लंघन करता है वो पापी है, भले ही फिर उन के अन्दर कोई भी गलतियाँ ना हो। वो परमेश्वर के सामने सबसे बड़े पापी है। इसीलिए यीशु ने फरीसियों को धमकाया। 
पेंटाटूक में, उत्पत्ति से लेकर व्यवस्थाविवरण तक, ऐसी आज्ञाए दी गई है जो हमें बताती है की हमें क्या करना है ओर क्या नहीं करना है। वह परमेश्वर का वचन, उसकी आज्ञाए है। हो सकता है की हम १००% उनका पालन न कर सके, लेकिन हमें स्वीकार करना चाहिए की वो परमेश्वर की आज्ञाए है। पहले से ही परमेश्वर ने हमें ये आज्ञाए दी है और हमें उसे परमेश्वर की आज्ञा के तौर पर स्वीकार करना ही चाहिए। 
आदि में वचन था, और वचन परमेश्‍वर के साथ था, और वचन परमेश्‍वर था (युहन्ना १:१)। फिर उन्होंने कहा, “उजियाला हो, तो उजियाला हो गया” (उत्पत्ति १:३)। उसने सबकुछ बनाया। फिर, उसने व्यवस्था की स्थापना की। 
“वचन देहधारी हुआ; और हमारे बीच में डेरा किया, और वचन परमेश्वर था” (युहन्ना १:१, १४)। परमेश्वर ने खुद को किस तरह हमारे सामने प्रकट किया? अपनी आज्ञाओ के द्वारा उसने अपने आप को प्रकट किया है क्योंकि परमेश्वर वचन और आत्मा है। इसलिए, हम बाइबल को क्या कहते है? हम उसे परमेश्वर का वचन कहते है। 
यहाँ कहा गया है की, “क्योंकि तुम परमेश्वर की आज्ञा को टालकर मनुष्यों की रीतियों को मानते हो”। उनकी व्यवस्था में ६१३ धाराएं है। यह करो यह न करो, अपने माँ बाप का सन्मान करो...आदि। लैव्यव्यवस्था की किताब में, दर्शाया गया है की पुरुषों और महिलाओं को किस तरह से पेश आना है और जब पालतू जानवर कूएँमें गिर जाए तब क्या करना है...आदि। उनकी व्यवस्था में ऐसी ६१३ धाराएं है। 
यह वचन मनुष्य के नहीं है, इसके बारे में हमें बार बार सोचना चाहिएं। हो सकता है की हम उसकी सारी व्यवस्था का पालन न कर सके, लेकिन फिर भी हमें उसे स्वीकारना चाहिएं और परमेश्वर की आज्ञाओ को मानना चाहिए. 
क्या परमेश्वर के वचन में कोई भी ऐसा भाग है जो झूठा हो? फरोसियो ने परमेश्वर की आज्ञाओं का उल्लंघन किया और परमेश्वर की आज्ञा को टालकर मनुष्य की रीतियों को मानते थे। उनके बुजुर्गो के वचन परमेश्वर के वचन से ज्यादा भारी थे। जब यीशु इस पृथ्वी पर था, तब उसने ऐसा ही देखा, और उसे सबसे ज्यादा दुःख इस बात का लगा की लोग परमेश्वर के वचनों का उल्लंघन कर रहे थे। 
परमेश्वर ने हमें व्यवस्था की ६१३ धाराएं इसलिए दी ताकि हमें अपने पापो के बारे में पता चल सके और हमें बता सके की वही सत्य है और हमारा पवित्र परमेश्वर है। हम सब उसके सामने पापी है, इसीलिए हमें विश्वास से जीना चाहिए और यीशु पर विश्वास करना चाहिए, जिसे परमेश्वर ने हमारे पास भेजा था क्योंकि वह हमसे प्रेम करता है। 
जो लोग उसके वचन का उल्लंघन करते है और उस पर विश्वास नहीं करते वो पापी है। जो उनके वचन का पालन करने में असमर्थ है वो भी पापी है, लेकिन उसके वचनों का उल्लंघन करना बहोत ही गंभीर पाप है। जो लोग ऐसा गंभीर पाप करते है वो नरक में जाएंगे। उसके वचन में विश्वास न करना वो उसके सन्मुख में बड़ा पाप है। 
 
 

क्यों परमेश्वर ने हमें व्यवस्था दी उसका कारण

 
परमेश्वर ने हमें व्यवस्था क्यों दी?
हमारे पाप और उसके दंड के बारे में एहसास कराने के लिए
 
क्या कारण था की परमेश्वर ने हमें व्यवस्था दी? हमें हमारे पापो का एहसास कराने के लिए और हम उसकी और वापस मुड़े इसलिए दी है। उसने व्यवस्था की ६१३ धाराएं दी ताकी हम अपने पापो को पहेचाने और यीशु मसीह के द्वारा छूटकारा पाए। इसीलिए परमेश्वर ने हमें व्यवस्था दी थी। 
रोमियों ३:२० में लिखा है, “व्यवस्था के द्वारा पाप की पहिचान होती है”। इसलिए, हम जानते है की नियमो के अनुसार ही जीवन जीने के लिए परमेश्वर ने हमें व्यवस्था नहीं दी। 
तो ऐसा कोनसा ज्ञान है जो हमें व्यवस्था से प्राप्त होता है? वो यह है की हम व्यवस्था को पूरी रीति से पालन करने के लिए असमर्थ है और उसके सन्मुख में गंभीर पापी है। उसकी व्यवस्था की ६१३ धाराओं से हम क्या जान सकती है? हम यह जान सकते है की हम अपनी गलतियाँ और उसकी व्यवस्था के अनुसार जीवन जीने में असमर्थ है। हम जानते है की, परमेश्वर की सृष्टि, यानी की हम बहुत ही कमजोर है, साथ ही साथ हम उसके सामने पापी है। उसकी व्यवस्था के अनुसार हमारा अंत नरक में होना चाहिए। 
जब हमको यह समझ में आता है की हम पापी है और उसकी व्यवस्था के मुताबिक़ जीवन जीने में असमर्थ है, तब हम क्या करते है? क्या हम सम्पूर्ण मनुष्य बनने की कोशिश करते है? नहीं। हमें यह स्वीकारना होगा की हम पापी है, और यीशु पर वविश्वास करके उसके पानी और आत्मा के उद्धार से छूटकारा पाना चाहिए, और उसका धन्यवाद करना चाहिए। 
उसने हमें व्यवस्था इसलिए दी ताकी हमें अपने पापो का एहसास हो और हम जानते है की पाप की सजा क्या है। और हमें समझ में आए की यीशु के बगैर नरक में से बचाना असम्भव है। अगर हम यीशु को अपने उद्धारकर्ता के रूप में स्वीकार करे तो हम छूटकारा पायेंगे। उद्धारकर्ता यीशु मसीह की और हमारी अगुवाई करने के लिए उसने हमें व्यवस्था दी। 
हम जानते है की हम कितने बड़े पापी है और ऐसे पापो से हमें बचाने के लिए परमेश्वर ने व्यवस्था बनाई। उसने हमें व्यवस्था दी और अपने इकलौते बेटे, यीशु को भेज दिया ताकि उसके बपतिस्मा के द्वारा हमारे सारे पाप वो खुद पर लेले और हमें बचाए। उस पर किया हुआ विश्वास ही हमें बचा सकता है। 
हम आशाहीन पापी है जिनको पाप से छूटकारा पाने के लिए यीशु पर विश्वास करना ही होगा, आए हम उसके बच्चे बने और उसे महिमा दे। 
हमें उसके वचन के मुताबिक़ समजना, सोचना और न्याय करना चाहिए, क्योंकि उसमें से सब कुछ उत्पन्न हुआ है। हमें उसके वचन के द्वारा मिलनेवाले छुटकारे के सच को सम्पूर्ण रीति से समजना चाहिए। यह सच्चा और सही विश्वास है। 
 

मनुष्य के हृदय में क्या है?
 
हमें परमेश्वर के सन्मुख क्या करना चाहिए?
हमें अपने पापो का अंगीकार करना चाहिए और अपने उद्धार के लिए परमेश्वर को कहेना चाहिए।
 
परमेश्वर के वचन के साथ ही हमारे विश्वास की शुरुआत होनी चाहिए और हमें उसके वचनों के द्वारा उसपे विश्वास करना चाहिए। अगर हम ऐसा नहीं करते, तो हम गलत फैमिमे पड़ जाएंगे। वह एक गलत और झूठा विश्वास होगा। 
जब फरीसियों और शास्त्रियों ने यीशु के चेलो को गंदे हाथ से खाना खाते देखा, तब अगर उन्होंने परमेश्वर के वचन को ध्यान में रखकर देखा होता तो उन्होंने यीशु के चेलो को धमकाया नहीं होता। परमेश्वर के वचन हमें कहेते है की, बहार से जो कुछ भी मनुष्य के शरीर में जाता है वो मनुष्य को अशुध्द नहीं करता क्योंकि वह पेट में जाता है और संडास में निकल जाता है, वह उसके हृदय को असर नहीं करता। 
जैसे मरकुस ७:२०-२३ में लिखा है, “फिर उसने कहा, “जो मनुष्य में से निकलता है, वही मनुष्य को अशुद्ध करता है। क्योंकि भीतर से, अर्थात् मनुष्य के मन से, बुरे बुरे विचार, व्यभिचार, चोरी, हत्या, परस्त्रीगमन, लोभ, दुष्‍टता, छल, लुचपन, कुदृष्‍टि, निन्दा, अभिमान, और मूर्खता निकलती हैं। ये सब बुरी बातें भीतर ही से निकलती हैं और मनुष्य को अशुद्ध करती हैं”। यीशु ने कहा मनुष्य पापी है क्योंकि उसका जन्म पाप में हुआ है। 
क्या आप इसका मतलब समजते है? हम जन्म से ही पापी है क्योंकि हम सब आदम की संतान है। लेकिन हम सत्य को नहीं देख सकते क्योंकि हम उसके वचनों का स्वीकार नहीं करते है और उस पर विश्वास भी नहीं करते। मनुष्य के हृदय में क्या है? 
ऊपर का भाग यह दर्शाता है की, “फिर उसने कहा, “जो मनुष्य में से निकलता है, वही मनुष्य को अशुद्ध करता है। क्योंकि भीतर से, अर्थात् मनुष्य के मन से, बुरे बुरे विचार, व्यभिचार, चोरी, हत्या, परस्त्रीगमन, लोभ, दुष्‍टता, छल, लुचपन, कुदृष्‍टि, निन्दा, अभिमान, और मूर्खता निकलती हैं। ये सब बुरी बातें भीतर ही से निकलती हैं और मनुष्य को अशुद्ध करती हैं”। 
भजन संहिता में लिखा है, जब मैं आकाश को, जो तेरे हाथों का कार्य है, और चंद्रमा और तारागण को जो तू ने नियुक्‍त किए हैं, देखता हूँ; तो फिर मनुष्य क्या है कि तू उसका स्मरण रखे, और आदमी क्या है कि तू उसकी सुधि ले?” (भजन संहिता ८:३-४) 
क्यों परमेश्वर खुद हमें मिलाने आया? वो हमें इसलिए मिलाने आया क्योंकि वह हमसे प्रेम करता है, उसने हमको बनाया है और हम पापी पर दया की है। उसने हमारे सारे पापो को धो दीया है और हमें अपने लोग बनाए है। “हे यहोवा हमारे प्रभु, तेरा नाम सारु पृथ्वी पर क्या ही प्रतापमय है!” (भजन संहिता ८:१) पुराने नियम में दाऊद राजाने जब यह जाना की परमेश्वर पापियों का उद्धार करेगा तब उसने यह गीत गाया था। 
नए नियम में, प्रेरित पौलुस ने भी यह गीत दोहराया है। यह कितना आश्चर्यजनक है की हम, यानी की परमेश्वर की सृष्टि परमेश्वर की संतान बन सकते है। यह केवल हमारे प्रति उसकी करुणा का फल है। यह परमेश्वर का प्रेम है।
हमें यह जानना होगा की परमेश्वर की व्यवस्था के अनुसार जीवन जीना परमेश्वर को चुनौती देना होगा। वह हमारा अभिमान है जो हमारी अनाज्ञाकारीता से आता है। जब हम उसकी व्यवस्था को पालन करने की कोशिश करते है और इसे जीवन के लिए प्रार्थना करते है तब उसके प्रेम से परे अपने जीवन को जीना उचित नहीं है। यह परमेश्वर की इच्छा है की हम यह जान ले की उसकी व्यवस्था के तहत हम सब पापी है और आए हम यीशु के पानी और लहू के छुटकारे में विश्वास करे। 
मरकुस ७:२०-२२ में उसका वचन कहता है, “फिर उसने कहा, “जो मनुष्य में से निकलता है, वही मनुष्य को अशुद्ध करता है। क्योंकि भीतर से, अर्थात् मनुष्य के मन से, बुरे बुरे विचार, व्यभिचार, चोरी, हत्या, परस्त्रीगमन, लोभ, दुष्‍टता, छल, लुचपन, कुदृष्‍टि, निन्दा, अभिमान, और मूर्खता निकलती हैं। ये सब बुरी बातें भीतर ही से निकलती हैं और मनुष्य को अशुद्ध करती हैं”। 
यीशु ने कहा की जो मनुष्य में से बहार निकालता है उसमे पाप है, और वो मनुष्य को अशुध्द करता है। यहाँ तक की परमेश्वर जो हमें अशुध्द भोजन देता है वो भी हमें अशुध्द नहीं करता है। सृष्टि की हुई सारी चीज़े शुध्ध है, लेकिन जो मनुष्य के भीतर से आता है वो अशुध्द है, वह पाप है और वो हमें अशुध्द करता है। हम सब आदम की संतान है। तो, हम क्या लेकर पैदा हुए है? हम बारह प्रकार के पापो को लेकर पैदा हुए है। क्या यह सच नहीं है? 
तो फिर, क्या हम बिना पाप किए जीवन जी सकते है? हम निरंतर पाप करते रहेंगे क्योंकि हम पाप के साथ पैदा हुए है। क्या हम व्यवस्था को जानते है इसलिए पाप करना बंद कर देंगे? क्या हम परमेश्वर की व्यवस्था के मुताबिक़ जीवन जी सकते है? नहीं। 
जितना ज्यादा हम व्यवस्था के मुताबिक़ जीवन जीने का प्रयास करेंगे, उतना ही वह कठिन होता जाएगा। हमें अपनी सीमाओं को जानना होगा और अपने भूतकाल की नीति को छोड़ देना चाहिए। उसके बाद, विनम्र मन से हम यीशु के बपतिस्मा और लहू का स्वीकार कर सकते है, जो हमें बचाता है।
व्यवस्था की सारी ६३१ धाराए अच्छी और न्यायपूर्ण है। लेकिन मनुष्य अपनी माँ के गर्भ से ही पापी है। जब हमें एहसास होता है की परमेश्वर की व्यवस्था सच्ची है और हमने पापी के रूप में जन्म लिया है और हम अपने प्रयासों से धर्मी नहीं बन सकते, तब हमें समज में आता है की हमें परमेश्वर की करुणा, पानी, लहू और आत्मा के सुसमाचार में यीशु के छुटकारे की जरुरत है। जब हमें अपनी सीमाओं का एहसास होता है – की हम अपने आप से धर्मी नहीं बन सकते और हम अपने पापो की वजह से नरक में जाएंगे – हम कुछ भी नहीं कर सकते लेकिन हमें यीशु के छुटकारे पर भरोसा करना चाहिए।
हम छूटकारा पा सकते है। हमें जानना होगा की हम अपने आप से परमेश्वर के आगे सच्चे और अच्छे नहीं बन सकते। इसलिए, परमेश्वर के आगे हमें अंगीकार करना चाहिए की हम पापी है जो नरक में जाने के लिए नियोजित किए गए है और हम उसकी करुणा के लिए प्रार्थना कर सकते है। “परमेश्वर, मुझे मेरे पापो से बचाइए और मुझ पर दया कीजिए।” उसके बाद, निश्चितरूप से हमें परमेश्वर उसके वचन में मिलेगा। इस रीति से, हम छूटकारा पा सकते है।
आइए दाऊद की प्रार्थना को देखते है, “ताकि तू बोलने में धर्मी और न्याय करने में निष्कलंक ठहरे” (भजन संहिता ५१:४)। 
दाऊद जानता था की वो पापो का ढेर था जो उसको नरक में धकेल दे उतना बूरा था, लेकिन वह परमेश्वर के आगे अंगीकार करता है, “अगर तू मुझे पापी कहे तो में पापी हूं। अगर तू मुझे धार्मी कहे, तो में धर्मी हूं। अगर तू मुझे बचाएगा, तो में बच जाऊँगा; और अगर जो तू मुझे नरक में भेजेगा, तो में नरक में जाउंगा”। 
यह एक सच्चा विश्वास है और बचने का मार्ग है। अगर हमें यीशु के छुटकारे में विश्वास की आशा है तो हमें ऐसा ही बनाना पड़ेगा। 
 
 

हमें जानना चाहिए की हमारे पाप क्या है 

 
हम आदम की संतान है, इसलिए, हम सब के हृदय में लालसा है। लेकिन परमेश्वर हमें क्या कहेता है? वो कहते है की हमारे हृदय में व्यभिचार होने के बावजूद भी हमें व्यभिचार नहीं करना चाहिए। अगर हमारे हृदय में खून करने की इच्छा है, तो परमेश्वर क्या कहेता है? वो हमें कहता है की हमें खून नहीं करना चाहिए। हम सब के हृदय में अपने माता पिता के प्रति अवहेलना है, लेकिन परमेश्वर हमें उनका आदर करने के लिए कहता है। हमें जानना चाहिए की परमेश्वर का वचन सच्चा और अच्छा है, लेकिन हम सब के हृदय में पाप है। 
क्या यह सच नहीं है? यह संपुर्ण रीति से सच है। तो फिर, हमें परमेश्वर के सन्मुख क्या करना चाहिए? हमें कबूल करना होगा की हम पापो का ढेर है और हम आशा रहित पापी है। यह सोचना उचित नहीं है की हमने कल पाप नहीं किया था इसलिए हम कल धर्मी थे, लेकिन आज पाप किया है इसलिए आज पापी है। हम जन्म से ही पापी है। इसलिए हमें यीशु के बपतिस्मा में विश्वास करके छूटकारा पाना चाहिए।
हम अपने कर्मो की वजह से पापी नहीं है: जैसे की व्यभिचार, हत्या, चोरी...लेकिन हम पापी इसलिए है क्योंकि हम पाप के साथ पैदा हुए थे। हम बारह प्रकार के पापो के साथ पैदा हुए है और हम परमेश्वर की नज़र में पापी पैदा हुए है, इसलिए हम खुद के प्रयासों से अच्छे नहीं बन सकते। हम केवल अच्छे होने का ढोंग कर सकते है। 
हमने पापी सोच के साथ जन्म लिया है, तो फिर ऐसे पाप न करने से भी हम धर्मी कैसे बन सकते है? हम अपने आप के प्रयासों से परमेश्वर के आगे धर्मी नहीं बन सकते। और यदि हम धर्मी होने का दावा करते है, तो यह पाखंड है। यीशु ने फरीसियों और शास्त्रीयो से कहा ‘कपटी शास्त्रियो और फरीसियो’ (मत्ती २३:२३)। मनुष्य जन्म से जी पापी होता है और जीवनभर परमेश्वर के सन्मुख पाप करता रहेता है।
यदि कोई कहेता है की उसने अपने जीवन में कभी किसी से लड़ाई नहीं की या किसी को मारा नहीं या फिर किसी की एक सुई तक नहीं चुराई तो वह झूठ बोल रहा है क्योंकि मनुष्य जन्म से ही पापी है। वह व्यक्ति झूठी, पापी और पाखंडी है। इस रीति से परमेश्वर लोगो को देख रहा है।
हर इंसान पैदाइसी पापी है। भले ही आप पाप का कोई कार्य नहीं करते, फिर भी आप नरक के लिए नियोजित है। भले ही आपने ज्यादातर व्यवस्था का पालन किया है, फिर भी आप पापी है और नरक के लिए नियोजित है। 
फिर, हमें एसी नियति के साथ क्या करना चाहिए? हमें परमेश्वर की दया मांगनी चाहिए और पापो से बचने के लिए उस पर भरोसा रखना चाहिए। यदि वो हमें नहीं बचाएगा तो हम नरक में जाएंगे। वह हमारा नियोजित स्थान है। 
जो लोग परमेशवर के वचन का स्वीकार करते है केवल वही अंगीकार करेंगे की वह वास्तव में पापी है। वह यह भी जानते है की वो विश्वास ही से धर्मी ठहरेंगे। इसलिए, वो जानते है की उसके वचन को जाने बगैर उसका अवहेलना करना और उसे नजरअंदाज करना भी एक पाप है। जो लोग उसके वचन को स्वीकार ते है वो धर्मी है, भले ही वो भूतकाल में पापी थे। वो उसके अनुग्रह में उसके वचन के द्वारा नया जन्म पाए हुए और सबसे ज्यादा आशीषित है। 
 

जो अपने कर्मो के द्वारा छूटकारा पाने की कोशिश करते है वो अभी भी पापी है
 
कौन यीशु पे विश्वास करने के बावजूद अभी भी पापी है?
वो जो अपने कर्मो के द्वारा छूटकारा पाने की कोशिश करते है
 
आए गलातियों ३:१० और ११ पढ़े, “इसलिए जितने लोग व्यवस्था के कामों पर भरोसा रखते है, वे सब श्राप के आधीन है, क्योंकि लिखा है, “जो कोई व्यवस्था की पुस्तक में लिखी हुई सब बातों के करने में स्थिर नहीं रहता, वह शापित है”। पर यह बात प्रगट है की व्यवस्था के द्वारा परमेश्वर के यहाँ कोई धर्मी नहीं ठहरता, क्योंकि धर्मी जन विश्वास से जीवित रहेगा”। 
ऐसा लिखा है की, “व्यवस्था की पुस्तक में लिखी हुई सब बातों के करने में स्थिर नहीं रहता, वह शापित है”। जो लोग मानते है की वो यीशु पर विश्वास करते है, लेकिन फिर भी अपने कर्मो से धर्मी बनने का प्रयास करते है वह शापित है। जो लोग अपने कर्मो से धर्मी बनने का प्रयास करते थे वह अभी कहा है? वह परमेश्वर के शाप के निचे है।
परमेश्वर ने हमें व्यवस्था क्यों दी? उसने हमें व्यवस्था दी ताकि हमें हमारे पापो का एहसाह हो (रोमियों ३:२०)। वो यह भी इच्छा रखता है की हम जाने की हम पापी है और नरक के लिए नियोजित किए गए है। 
परमेश्वर के पुत्र, यीशु के बपतिस्मा पे विश्वास करो और पानी और आत्मा से नया जन्म पाओ। केवल तब ही तुम अपने पापो से बचोगे, धर्मी बनोगे, अनंत जीवन पाओगे और स्वर्ग में जाओगे। अपने हृदय में विश्वास करे। 
 

संसार का सबसे अहंकारी पाप
 
संसार का सबसे अहंकारी पाप कौन सा है?
व्यवस्था के मुताबिक़ जीवन जीने का प्रयास करना
 
उसकी आशिप पर विश्वास करने के द्वारा हम आशीषित हुए है। जो लोग परमेश्वर के वचन पर विश्वास करते है उनको परमेश्वर बचाएगा।
लेकिन आज, विश्वासियो के बिच में कुछ एसे विश्वासी भी है जो व्यवस्ता के मुताबिक़ जीवन जीने का प्रयास करते है, लेकिन वो कैसे संभव हो सकता है?
हमें इस बात का एहसास होना चाहिए की उसकी व्यवस्था के मुताबिक़ जीवन जीना कितना मूर्खता से भरा हुआ है। जितना हम ज्यादा कोशिश करेंगे, उतना ही वो ओर भी कठिन होगा। वह कहेता है, “अत: विश्वास सुनने से और सुनना मसीह के वचन से होता है” (रोमियों १०:१७)। उद्धार पाने के लिए अहंकार को फेंक देना जरुरी है।
 
 

उद्धार पाने के लिए हमें अपने मापदंडो को छोड़ना होगा

 
उद्धार पाने के लिए हमें क्या करना चाहिए?
हमें अपने मापदंड को छोड़ना पडेगा।
 
कोई व्यक्ति कैसे उद्धार पा सकता है? वो तभी संभव है जब उसे एहसास हो की वो पापी है। एसे कई लोग है जिन्होंने अभी तक छूटकारा नहीं पाया क्योंकि उन्होंने अपने झूठे विश्वास और प्रयासों को नहीं छोड़ा है। 
परमेश्वर कहेता है की जो लोग व्यवस्था की बंदिश में है वो शापित है। जो लोग ऐसा मानते है की यीशु पर विश्वास करने के बाद व्यवस्था के मुताबिक़ जीवन जीने से धीरे धीरे वह धर्मी बन जाएंगे तो वह शापित है। वो परमेश्वर पर विश्वास करते है, लेकिन फिर भी ऐसा मानते है की उद्धार पाने के लिए व्यवस्था का पालन करना अनिवार्य है। 
प्रिय मित्रो! क्या हम अपने कर्मो के द्वारा धर्मी बन सकते है? हम केवल यीशु के वचनों पर विश्वास करने से ही धर्मी बन सकत है, और फिर उसके बाद छूटकारा पा सकते है। यीशु के बपतिस्मा, उसके लहू, और वो परमेश्वर है इस बात पर विश्वास करने से ही हम छूटकारा पा सकते है। 
इसीलिए परमेश्वर ने विश्वास की व्यवस्था बनाई जिस से हम धर्मी बन सके। पानी और आत्मा का छूटकारा मनुष्यों के कर्मो से नहीं मिलता, लेकिन परमेश्वर के वचनों पर विश्वास करने से मिलता है। परमेश्वर हमें विश्वास के जरिए छूटकारा देता है और इसी रीति से परमेश्वर ने हमारे उद्धार की योजना बनाई और पूरी की। 
जिन्होंने यीशु पर विश्वास किया फिर भी उनको छूटकारा क्यों नहीं मिला? क्योंकि उन्होंने पानी और आत्मा के छुटकारे के वचनों का स्वीकार नहीं किया था। लेकिन हम जो उनके जैसे ही अयोग्य है, फिर भी हमने परमेश्वर पर हमारे विश्वास के जरिए छूटकारा पाया है। 
चक्की पिसते दो लोगो में से एक व्यक्ति को उठा लिया गया लेकिन दूसरा चक्की पिसता ही रहा। जिसको उठाया नहीं गया वो उस व्यक्ति को दर्शाता है जिसने छूटकारा नहीं पाया है। क्यों एक को उठा लिया गया और दूसरा रह गया? 
क्योंकि एक ने परमेश्वर के वचन सुने और विश्वास किया, लेकिन दुसरे ने व्यवस्था का पालन करने में कड़ी महेनत की और अंत में नरक में डाल दिया गया। उसने रेंग कर परमेश्वर के पास आने की कोशिश की लेकिन परमेश्वर ने उसे झटक कर ऐसे फेंक दिया जैसे हम अपने पाँव पर चलते कीड़े को फेंक देते है। अगर कोई व्यक्ति व्यवस्था का पालन करने की कोशिश करके परमेश्वर के पास आएगा तो निश्चितरूप से उसे नरक में डाल दिया जाएगा। 
“इसलिये जितने लोग व्यवस्था के कामों पर भरोसा रखते हैं, वे सब शाप के अधीन हैं, क्योंकि लिखा है, “जो कोई व्यवस्था की पुस्तक में लिखी हुई सब बातों के करने में स्थिर नहीं रहता, वह शापित है”। पर यह बात प्रगट है कि व्यवस्था के द्वारा परमेश्‍वर के यहाँ कोई धर्मी नहीं ठहरता, क्योंकि धर्मी जन विश्‍वास से जीवित रहेगा। क्योंकि उसमें परमेश्‍वर की धार्मिकता विश्‍वास से और विश्‍वास के लिये प्रगट होती है; जैसा लिखा है, “विश्‍वास से धर्मी जन जीवित रहेगा” (गलातियों ३:१०-११, रोमियों १:१७)। 
परमेश्वर के वचनों पर विश्वास न करना उसके सन्मुख पाप है। इसके अतिरिक्त, अपने मापदंड के मुताबिक़ परमेश्वर के वचनों का उल्लंघन करना भी पाप है। हम मनुष्य उनकी व्यवस्था के मुताबिक़ जी नहीं सकते क्योंकि हम जन्म से ही पापी है और जीवनभर पाप करते है। हम यहाँ वहां और जहा भी जाते है वहां पाप करते ही रहते है। हमें यह स्वीकार कर लेना चाहिए की हम देह में है और पाप किए बिना नहीं रह सकते। 
इंसान गोबर से भरे एक बड़े बर्तन के समान है। अगर हम इसे चारों ओर ले जाने की कोशिश करते हैं, तो यह रास्ते भर बिखरेगा। हम हर जगह पाप करते रहते है। क्या आप उसकी कल्पना कर सकते है? 
क्या आप अभी भी पवित्र होने का ढोंग करेंगे? यदि आप स्वयं को स्पष्ट रूप से जानते हैं, तो आप पवित्र होने की कोशिश करना छोड़ देंगे और यीशु के पानी और लहू पर विश्वास करेंगे। 
जिन्होंने अभी नया जन्म पाया नहीं है उनको अपनी ज़िद छोड़ देनी चाहिए और परमेश्वर के आगे यह अंगीकार करना चाहिए की वो पापी है। फिर, उनको परमेश्वर के वचन की और वापस मुड़ना चाहिए और पता लगाना चाहिए की उसने कैसे पानी और आत्मा से उनको उद्धार दिया।